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उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के खिलाफ नैनीताल हाई कोर्ट में दायर याचिका पर बुधवार को काफी गरमागरम बहस हुई. केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए एएसजी ने कोर्ट से कहा कि राष्ट्रपति के फैसले पर कोर्ट को दखल देने का अधिकार नहीं है. जिस पर कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए कहा कि राष्ट्रपति का आदेश राजा का फैसला नहीं है. इसकी समीक्षा हो सकती है.
हाई कोर्ट में एएसजी ने कहा कि राज्य विधानसभा के ज्यादातर सदस्य मौजूदा नेतृत्व से खुश नहीं थे. इस पर कोर्ट ने कहा कि मंगलवार को भी केंद्र ने 35 विधायकों की बात कही थी, लेकिन राज्यपाल की ओर से राष्ट्रपति को लिखी चिट्ठी में इसका जिक्र नहीं है.
कोर्ट ने कहा कि वोटों के बंटवारे के संबंध में एक दिन पहले की जानकारी मिल गई थी, लेकिन राज्यपाल ने फिर भी अपने पत्र में इस पर कुछ भी क्यों नहीं लिखा.
बागी विधायकों के दिनेश द्विवेदी ने दलील दी कि जब विधायकों ने मत विभाजन की मांग की तो स्पीकर ने क्यों नहीं मानी. स्पीकर को पता था कि सरकार अल्पमत में है.
इस मामले में अपनी जिरह में कांग्रेस के नेता और वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने में केंद्र की ओर से अधिकारों के दुरुपयोग का आरोप लगाया और अदालत से कहा कि अगर इस तरीके से अधिकारों का इस्तेमाल होने लगा तो किसी भी राज्य में सीएम का पद सुरक्षित नहीं रहेगा.
हरीश रावत की ओर से अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि केंद्र की यह दलील गलत है कि विधानसभा निलंबित है, भंग नहीं. उन्होंने कहा कि बोम्मई केस के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केंद्र सरकार संसद में प्रस्ताव पारित किए बगैर विधानसभा को भंग नहीं कर सकता. इसलिए केंद्र ने ऐसा किया.
उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति, राज्यपाल या केंद्र तय नहीं कर सकते कि मत विभाजन की मांग मानी जाए या नहीं. यह स्पीकर का अधिकार है. राज्यपाल ने केंद्र को भेजी किसी रिपोर्ट में संवैधानिक संकट का जिक्र नहीं किया है. हाउस में ही बहुमत का फैसला होता है.